घर में रहते हुए भी मुझे बेघर सा क्यों लगता है!
जाने से है चेहरे अनजाना शहर सा क्यों लगता है!!
वोह जगह यहाँ तुम और हम खुश हों के रह सकें,
हकीकत न हों इक ख्वाबी मंज़र सा क्यों लगता है!!
रस्ते वही, पेड़ पौधे वही, यहाँ मिलते थे हम कभी
फूल तो बिखरे है मगर ये बंज़र सा क्यों लगता है!!
वर्षों ही निकल गए है, कई मौसम भी बदल गए है,
बातें तो मीठी है सुन कर ज़हर सा क्यों लगता है!!
दर किनार सब वही है बस कहीं सकून ही नहीं है,
सिर्फ तेरे ना होने से उजड़ा मंज़र सा क्यों लगता है!!
हों सके आ जाओ तुम, लौटा दो ख़ुशी के पल छिन,
बिना तेरे मुझ को जीना इक कहर सा क्यों लगता है!!
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Friday, January 1, 2010
ग़ज़ल - घर में रहते हुए भी
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7 comments:
बहुत बेहतरीन लगी गज़ल!!
bahut dard bhara hai aapmen !
apna apna sa dard laga aapki gazal main..sunder abhivyakti.
blog par aane ka bahut shukriya.
बेहतरी रचना के लिए
बहुत -२ आभार
बेहतरी रचना के लिए
बहुत -२ आभार
जिंदगी तो सुलगती रहती है सदा कशमकश में मगर,
रोज़मर्रा की ज़दोजहद से तुम निकल उभर के चलो!!
कभी समझेगा कोई तेरी उलझनों के तानो-बानो को,
तुम इस ख्याल को अपने ज़ेहन से अलग कर के चलो!!
Bahut sunder abhivykti apane bhavo kee |
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