
उफ़
तुम्हारे ल्मस की जादूगरी
उन पाक लम्हों में
मैं
तुम से
क्या क्या पा गयी हूँ!
कहाँ को निकली थी
और कहाँ पे आ गयी हूँ!
यह दो-राहा है या चौ-राहा
मंजिल हें या रहगुजर !
या फीर
मुस्सरतों से भरा
एक पाक सफर!
मुझे तो कुछ भी याद नहीं
अपनी या तुम्हारी हसती!
या खारों सी चुभती
जलने वालों की बस्ती!
मुझे
कुछ भी ख़बर नहीं
ज़मीन पे हूँ
या
आसमान पे हूँ!
साहिल पे हूँ
या
तूफान में हूँ!
कीतना हल्का
पखेरू सा
बदन हो गया है
एक ज़र्रा
ज़र्रे से
आफ़ताब हो गया है !
मुझे
कुछ भी ईलम नही
यह ख्वाबों का आगाज़ है!
या
अंजाम
नफस नफस मेरा बाँध गया है
या
आजाद हो गया है!
आवाद हूँ
या
बरबाद
मुझे कुछ भी
मालूम नहीं
क्या खोया
और क्या पाया है
उफ़,
तुम्हारे ल्मस की जादूगरी !
4 comments:
एक ज़र्रा
ज़र्रे से
आफ़ताब हो गया है !
बहुत सुंदर रचना.. बधाई स्वीकार करे..
Thanks for your encouraging comments!
thanx sir..thanx a lot..
aapki rachnayein bhi bahut acchi hai..so badhai ke patr aap bhi hain!!
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