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ज़िन्दगी की कड़ियों को,
समेटना जो चाहा तो,
समेट नही पाया मैं।
लोग मिलते रहे और बिछड़ते गए।
सपने बनते रहे और सिमटते गए।
रिश्ते बनते रहे और टूटते गए।
घाव रिस कर नासूर बनते गए।
फ़िर ख़ुद को ख़ुद से,
जोड़ना जो चाहा तो,
जोड़ नही पाया मैं।
यादें आती रही और जाती रही।
एकांत में दर्द दिल में जगाती रही।
बंधन बंधते रहे और फ़िर टूटते गए।
मेरी जिदंगी को मुझ से लूटते गए।
फ़िर अपने आप पर,
हँसना जो चाहा तो,
हँस नही पाया मैं।
दिल रोता रहा और अश्क बहते रहे।
आँखें छलकी रहीं होंठ खिलते रहे।
ज़िन्दगी ज़िन्दगी से दूर होती गयी।
रौशनी फकत अंधेरों में खोती गयी।
फ़िर दुनिया से दिल,
जोड़ना जो चाहा तो
जोड़ नही पाया मैं।
सचाई दबती रही झूठ उभरता रहा।
आदर्श मिटते रहे और दर्द पलता रहा।
ख़ुद अपने से ही अजनबी बनता गया।
यही सिलसिला ज़िन्दगी में चलता गया।
इतना होने पर भी,
सम्भलना जो चाहा तो
संभल नही पाया मैं।
ज़िन्दगी की कड़ियों को,
समेटना जो चाहा तो,
समेट नही पाया मैं।
6 comments:
लाजबाब अभिव्यक्ति . फोटू तो और भी मासूम .
विवेक जी ,
आप ने मेरा होंसला बढ़ाया उस के लिए आप का बहुत बहुत धन्यबाद.
आशु
sahi zindagi har waqt naya aayam leke aati hai,cho chaha kaha hota hai? bahut sundar kavita badhai
Ashoo ji,
Sabse pahle to mere blog ke sadasya banane ke liye apko bahut dhanyavad.
Vase to main intjar kar raha tha ,chaya vali deedee ke agle bhag ka,parantu Jindagee Kee Kadiyan suljhane laga.Achchhee kavita hai.
Maine aj apkee kuchh purani kavitaen,Bhavishya,Seemaheen Trishna, Sagar Kinare bhee padheen.
Sbhee kavitayen achchhee hain.
Age kabhee kisi kavya sankalan(kai logon ka)kee yojna banee to usmen apkee kavitaen bhee loonga.
Hemant Kumar
हेमंत जी,
आप के कमेंट्स और आप के शब्दों से मेरा होंसला बहुत बढ़ता है. आप अपनी राय मुझे ज़रूर देते रहे. मैं अपने को एक बहुत अनाडी और अनुभव रहित छोटा सा लेखक मानता और लिखना मेरी मजबूरी है क्योंकि यह मेरे अन्दर की भावनाओ का मुझ से सही परिचय करवाती है.
आशु
बहुत ही मार्मिक रचना है. लगता है मेरी ही कहानी बयां की है.
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