Friday, January 1, 2010

ग़ज़ल - घर में रहते हुए भी


घर  में  रहते  हुए  भी मुझे बेघर सा क्यों लगता है!
जाने से है चेहरे अनजाना शहर सा क्यों लगता है!!

वोह जगह यहाँ तुम और हम खुश हों के रह सकें,
हकीकत न हों इक ख्वाबी मंज़र सा क्यों लगता है!!

रस्ते वही, पेड़ पौधे  वही, यहाँ मिलते थे हम कभी
फूल तो बिखरे है मगर ये बंज़र सा क्यों लगता है!!

वर्षों ही निकल गए है, कई मौसम भी बदल गए है,
बातें तो मीठी है सुन कर ज़हर सा क्यों लगता है!!

दर किनार सब वही है बस कहीं सकून ही नहीं है,                    
सिर्फ तेरे ना होने से उजड़ा मंज़र सा क्यों लगता है!!

हों सके आ जाओ तुम, लौटा दो ख़ुशी के पल छिन,
बिना तेरे मुझ को जीना इक कहर सा क्यों लगता है!!

7 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन लगी गज़ल!!

प्रज्ञा पांडेय said...

bahut dard bhara hai aapmen !

shikha varshney said...

apna apna sa dard laga aapki gazal main..sunder abhivyakti.
blog par aane ka bahut shukriya.

Pushpendra Singh "Pushp" said...

बेहतरी रचना के लिए
बहुत -२ आभार

Apanatva said...
This comment has been removed by the author.
संजय भास्‍कर said...

बेहतरी रचना के लिए
बहुत -२ आभार

Apanatva said...

जिंदगी तो सुलगती रहती है सदा कशमकश में मगर,
रोज़मर्रा की ज़दोजहद से तुम निकल उभर के चलो!!

कभी समझेगा कोई तेरी उलझनों के तानो-बानो को,
तुम इस ख्याल को अपने ज़ेहन से अलग कर के चलो!!
Bahut sunder abhivykti apane bhavo kee |

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