Tuesday, December 1, 2009

बेदर्दी बालमा तुझ को.....

बेदर्दी बालमा तुझ को...मेरा मन याद करता है
बरसता है जो आँखों से वो सावन याद करता है
बेदर्दी बालमा तुझ को...मेरा मन याद करता है.....


शाम का झुटपुटा सा था. आशुतोष  अपने कमरे में ऐसे ही अनमना सा लेता हुआ था अपने बिस्तर पर। तभी "आरज़ू" फिल्म के पुराने गाने ने, जो टीवी पर चलने लगा था, उसे चोंका सा दिया. दिल खेंच ले गया उसे फिर उन पुराने दिनों के ख्यालों में। वो  खो गया उन मीठी यादो के झरोखों मे जो आज तक उस के दिल को सहला जाती है. उसे याद आया वो रोज़ जब मधु वादा कर के भी उस दिन देर से आयी थी. उस वक़त भी येही गीत कहीं दूर Loudspeaker पर चल रह था ।

आशुतोष ऐसे ही उन के  नियमत मिलने वाले पेड़ के नीचे पड़े पत्थर पर बेठा बेसब्री से मधु का इंतज़ार कर रहा था ।वो आयी और आशुतोष का मुँह खिल गया हालाँकि वो मधु से बहुत नाराज़ होने का नाटक करने लगा था पर उस के चेहरे की ख़ुशी जैसे छुपाये नहीं छुप पा रही थी जिसे मधु थोड़ी ही देर के बाद उसे मनाते मनाते भांप गयी थी।

फिर मधु ने अपने  हाथों से आशुतोष के कंधे पर चपत लगा कर कहने लगी "हां.. मेरा उल्लू बना रहे थे मुझे ऐसे ही परेशान किये जा रहे हो यहाँ मैं ऐसे ही पागल हुई जा रही थी कि तुम  बेचारे  कब से इंतज़ार कर रहा है मेरी।"

" अच्छा बाबा ..पहले तो इतनी इंतज़ार करवाई अब मार काहे को रही हो।" आशुतोष  उस का हाथ अपने हाथो में लेते कहा.

फिर हमेशा कि तरह से वो उठ कर बाग़ में हाथ पकडे हुए टहलने लगे और बतियाने लगे. सूरज धीरे धीरे ढलने लगा था और अब मधु अपना सर आशुतोष की गोद में रखे आँखे बंद किये लेती थी जब के आशुतोष  बातें किये जा रहा था । मधु के चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान फ़ैली हुई थी. जब आशुतोष ने गौर किया तो बाते करना बंद कर दिया और वो उस के मुस्कराते चहरे पर भावों को पढने कि कोशिश करने लगा ।

मधु को इस का एहसास हुआ तो आँखे खोल दी, " क्या हुआ? बाते बंद क्यों कर दी?"

"तुम्हारे चेहरे के इतने सुन्दर उतार चढाव को देख कर कौन पागल बातों से वक़्त बर्बाद करेगा?"
ऐसे कहते ही आशुतोष उसे  अपनी बाँहों में ले लेता हूँ । मधु जान बुझ कर कसमसाने कि कोशिश करती हो फिर छोड़ देती हों ।

"क्या, हमेशा ऐसे ही प्यार करते रहोगे? भूल तो नहीं जाओगे?

"पागल हो, ऐसा कभी नहीं होगा. हम कभी जुदा नहीं होंगे. मैं दूर जा रहा हूँ तो क्या हुआ मेरा दिल तो सदा तुम्हारे पास ही रहेगा ।"

आशुतोष के जाने का ज़िक्र आते ही जैसे मधु का मन उदास हो गया, चेहरे कि हंसी जैसे एक दम गायब हो गयी और उस कि जगह एक मासूमियत की और बेचारगी कि परत जम गयी।

" मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती, तुम्हारा जाना ज़रूरी है क्या?"

आशुतोष मधु का हाथ अपने हाथों में ले कर तुम्हे दिलासा देने की कोशिश करता है , मगर उस की आँखों से बहते आंसू उस के  दिल को चीरे जा रहे थे ।

और इसी तरह उन की ऐसी ही मुलाकातों का सिलसिला आशुतोष के जाने तक भी चलता रहा।
और फिर ...आशुतोष चला गया दूर .....मधु को छोड़ ..अपने वतन को छोड़ ...अपनी सभी दोस्तों को छोड़..अपनी सारे  परिवार को छोड़..पढाई करने ..


और मधु आशुतोष के आने के बहुत इंतज़ार के बाद एक दिन डोली में बैठ कर चली गयी.... अपने आप से चिड सी हो गयी आशुतोष को के उस ने ऐसा क्यों होने दिया ...क्यों नहीं कुछ कर पाया वो अपने प्यार को पाने के लिए ..क्यों उसे ऐसे ही जाने दिया अपनी जिंदगी से ..किस बात से अपने आप को बेक़सूर ठहराऐ  ...उसे मधु से कोई गिला नहीं था ..गिला था तो अपने आप से है ..अपनी किस्मत से  ..अपनी तकदीर से है ..अपनी खुदगर्जी से  ..अब जब भी वो लौट कर भारत जाता तो अनजाने में उस के क़दम उसी पुरानी मिलने वाले स्थान की ओर बढ़ जाते .... यादों का गहरा समुन्दर उसे अपने अन्दर समेट लेता है , उसे आज भी लगता है जैसे मधु अपनी दर्द से भरी आँखों में उस से गीत के ज़रिये बार बार सवाल कर रही हो....

कभी हम साथ गुज़रे थे जिन सजीली रह गुज़ारों से
फिजा के भेस में गिरते हैं अब पत्ते चनारों से
ये राहें याद करती हैं ये गुलशन याद करता है !!


बेदर्दी बालमा तुझ को...मेरा मन याद करता है

कोई झोंका हवा का जब मेरा आंचल उडाता है
गुमान होता है जैसे तू मेरा दामन हिलाता है
कभी चूमा था जो तूने वो दामन याद करता है

बेदर्दी बालमा तुझ को...मेरा मन याद करता है

वो ही हैं झील के मंज़र वो ही किरणों की बरसातें
जहां हम तुम किया करते थे पहरों प्यार की बातें
तुझे इस झील का खामोश दर्पण याद करता है

बेदर्दी बालमा तुझ को...मेरा मन याद करता है
बरसता है जो आँखों से वो सावन याद करता है
बेदर्दी बालमा तुझ को...मेरा मन याद करता है...


4 comments:

शरद कोकास said...

कवि शरद बिल्लोरे की कविता है....
"जब हम किसी शहर से बाहर निकलते है
तो किसीकी ज़िन्दगी से भी बाहर निकल जाते हैं..
"
आप के साथ ऐसा न हो इस दुआ के साथ... शरद

Udan Tashtari said...

कभी हम साथ गुज़रे थे जिन सजीली रह गुज़ारों से
फिजा के भेस में गिरते हैं अब पत्ते चनारों से
ये राहें याद करती हैं ये गुलशन याद करता है !!


-क्या कहें..हम भी कभी निकले थे यूँ ही समझा कर!!

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

आशु जी,
बहुत बढ़िया लिखा है आपने अपने दर्द को।ये तो वही समझ सकता है जिसने ऐसी चोट खुद खाई हो।मैं भी काफ़ी दिनों तक आपकी ही तरह----नीरज का यह गीत----कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे----सुनता रहा ----पर क्या किया जाय--- यही तो दुनिया है।
अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट्।
हेमन्त कुमार

आशु said...

यह मेरे दिल के बहुत करीब है..आप ने पसंद किया उस के लिए आप का बहु बहुत शुक्रिया..अपना प्यार बनाए रखें.

आशु

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