Tuesday, December 9, 2008

चाय वाली दीदी - भाग १

इस कहानी को लिखने का मेरा कोई खास मकसद नही था। पहले पहल सोचा करता था की दुनिया में मकसद ही सब कुछ होता है पर अब नही। अब तो यह महसूस करता हूँ की कुछ बातें बिना किसी मकसद के भी ज़िन्दगी के लिए बहुत ज़रूरी हो जाती है। खैर इस विवाद में न पड़ कर कहानी शुरू करता हूँ। बचपन की अनुभूतियाँ इकठ्ठा में कुछ समय तो लगता ही है और कई बार वो उलटी सीधी भी हो जाती है फ़िर भी मैं कोशिश करूंगा के अपनी पुरानी यादों को एक रूप दे सकूं। जब की यह बात है तब मैं छोटा ही तो था, शायद ८-९ वर्ष का रहा हूँगा। हमारे साथ वाला घर मिस वीनस का था जिसे मैं मिस्सी दीदी बोलता था। आज भी ख्यालों में उस की धुंधली सी तस्वीर उभर आती है तो आँखें नम सी हो जाती है। दरअसल उमर के बढ़ जाने से सब कुछ जैसे बदल सा जाता है। आज मैं और ही घटनायों के चकर्व्युह में इस कदर उलझा सा हूँ के मिस्सी दीदी को तकरीबन भूल ही तो गया था। पता नहीं आज अचानक फ़िर कहीं अतीत से उभर कर मिस्सी दीदी का चेहरा मेरी आंखों के सामने आ गया

आज मेरी आंखों के आगे पुराने दृश्य झिलमिला उठते है और उन के साथ ही मिस्सी दीदी का सुंदर चेहरा। लम्बाई करीबन साढ़े पाँच फीट, गोरा रंग, चेहरे पर कोई कील, फुंसी या तिल नहीं सुंदर नैन नक्श, भूरे रंग की बड़ी बड़ी आँखें और हाथों पर नरम नाजुक उँगलियाँ। और उँगलियों के छोरों पर पालिश किए हुए लंबे लंबे नाखून। सर पर सुनहरे बालों का एक गुछ्छा। यह चेहरा मेरे मन प्राण में इस तरह से घुल गया था के मैंने सोचा नहीं था के मैं उसे कभी यूँ भूल जाऊँगा।

पापा ने उन दिनों मिलिटरी हॉस्पिटल छोड़ कर सिविल हॉस्पिटल मैं ज्वाइन कर लिया था। कुछ देर बाद मिस्सी दीदी भी कहीं से ट्रान्सफर हो कर उसी हॉस्पिटल में आ गयी थी। वोह एक नर्स थी और उन्हें घर भी हॉस्पिटल की कालोनी में ही हमारे घर के साथ वाला मिला था। उनके साथ उनकी एक बड़ी दीदी थी जो की विधवा थी और अकेली ही मगन रहा करती थी। बस इन दोनों बहनों का और कोई सहारा न था। मैंने पहले उन्हें कभी साडी पहने नही देखा था पर धीरे धीरे वो भारतीय पहरावे को अपनाने लगी थी। मिस्सी दीदी को मैंने कितनी पोशाकों में देखा था इसका कोई हिसाब नहीं। और पोशाक बदलने के साथ मनुष्य कितना बदल जाता है इसका भी हिसाब नहीं। मिस्सी दीदी से मैंने इंग्लैंड की बहुत सी कहानियाँ सुनी थी जैसे जब वहां बहुत बर्फ गिरती थी तो कैसे घर से निकलना कठिन हो जाता था। और ऐसे दिनों में वो घर पे बैठ कर अपनी मम्मी के पास काफी पीती थी और कहानियाँ सुना करती थी। फ़िर मिस्सी दीदी ने मुझे विंसेंट स्क्वायर के बारे में बताया था यहाँ उसे कितने ही लड़कों ने शादी का पर्स्ताव रखा था और उन में से कुछ तो कहते थी के अगर उन की शादी मिस्सी दीदी के साथ नहीं हुई तो वोह आतमहत्या कर लेंगे बगेराः बगेराः ।

शेष अगले भाग में ....कृपया इंतज़ार करे..

2 comments:

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Ashoo ji,
Apkee kahanee kee shuruat to padh kar anand aa gaya.Vo isliye ki ek to abhee tak maine sirf apke geet ,kavitaen hee padhee thee.lekin kahanee bhee ap itnee achchhee likhte honge..ye main soachta bhee naheen tha.
Apkee kahanee kee bhasha bahut hee saral,fluent hai.Mujhe age kee kahanee ka intjar rahega.
Shubhkamnaen.
Hemant Kumar

आशु said...

Hemanat ji,

Aap ka bahut bahut shukriya jo aap hamesha meri honsla afzaee karte hai. Main zara likhne ke doosre pehlooyon ko bhee try kar raha hoon. Aap ke comments mere courage ko aur bhee badaate hain.

Aap ka bhau bahut dhanyabaad!

Ashoo

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