Sunday, May 18, 2008

सीमाहीन तृषा

खंडहरों मैं घूमा करता हूँ!
मुख पे लिए उदासी,
आँखें लिए यह प्यासी,
बहते हुए आंखों से हर
आँसू को चूमा करता हूँ!
खंडहरों मैं घूमा करता हूँ!

दिल आवाज़ दिया करता हैं
ज़िक्र तेरा ही किया करता हैं
आंखों को भींच भींच कर
मैं करुणा मैं झूमा करता हूँ!
खंडहरों मैं घूमा करता हूँ!

तेरी यादें अब भी आती हैं
दिल मैं एक शोर मचाती हैं
तेरे संघ जो बीते पल थे
उन्ह पलों की याद में
ख़ुद को बदनुमा करता हूँ!
खंडहरों मैं घूमा करता हूँ!

2 comments:

समयचक्र said...

दिल आवाज़ दिया करता हैं
ज़िक्र तेरा ही किया करता हैं
आंखों को भींच भींच कर
मैं करुणा मैं झूमा करता हूँ!
खंडहरों मैं घूमा करता हूँ!

बहुत बढ़िया रचना धन्यवाद

आशु said...

Mahender ji,

Aaap ka bahu abhut shukriya. Aise hee apne sundar shanbdon se honsla dete rahen

Ashoo

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